डॉ. फिरदौस अज़मत सिद्दीकी की नावेल ”ज़िदाँ” पर चर्चा

 

नई दिल्लीः डॉ. फिरदौस अज़मत सिद्दीकी की नावेल ज़िदाँ पर कल शाम (28-11-2022) इंडिया इंटरनेशनल सेंटर में बातचीत रखी गई। इसमें हाल में ही जेसीबी अवार्ड से सम्मानित प्रो. ख़ालिद जावेद मेहमान ख़ुसीसी के तौर पर शामिल हुए। विशेष टिप्पणी के लिए हिंदी की प्रसिद्ध कवियित्री प्रो. सविता सिंह, ….. व गालिब एकैड्मी के सेक्रेट्री, डा. आक़िल अहमद भी मौजूद थे। कार्यक्रम की अध्यक्षता प्रो. फरहत नसरीन ने की। संचालन राहुल कपूर का रहा जबकि बातचीत के लिए अपर्णा दीक्षित मौजूद थीं। प्रो. जावेद ने सबसे पहले अपनी बात रखते हुए ज़िदाँ को एक जरूरी समाजिक-राजनैतिक साहित्य के तौर पर देखे जाने की ज़रुरत की तरफ इशारा किया। उन्होंने कहा यह नॉवेल कोरोना का एक अकेला साहित्य है जो सीधे कोरोना पर उर्दू में लिखा गया। किरदारों की सलीकेदार की बुनाई की बात करते हुए उन्होंने कहा की यह नावेल तारीख में दर्ज होने लायक है। प्रो. जावेद ने एक अहम बात यह कही की नाविल निगारी मे अदब और तारीख़ को अलग करके नहीं देखा जा सकता, इस लिहाज से भी यह नाविल बड़ा अहम हो जाता है कि कब किरदार अपने गुज़रे माजी मे गोते लगाने लगता कभी 70 तो कभी 80 की दिहाई फिर वर्तमान के प्रसंग मे बात करता, और यह सब बातें एक तारीखनिगार ज़ादा अच्छे से समझ सकता है। प्रो. सविता ने बताया की नावेल लिखना आसान नहीं। आपको लंबे वक्त तक नॉवेल में ही रहना होता है। उन्होंने इस बात की तरफ भी इशारा किया कि बेहद कम औरतें आज नॉवेल लिख पा रही हैं। ऐसे में कोरोना पर उर्दू में एक नॉवेल आना स्त्री साहित्यकारों की हौसलाअफजाई करता है। बरकाती साहब ने नावेल पर सिलसिलेवार अपनी बात रखते हुए बताया कि यह नावेल कोरोना नहीं बल्कि कोराना के दौर में बदल रहे आज़ादी के मायनों पर खड़ा है। नावेल से ही कई तारीखी ब्योरों का हवाला देते हुए उन्होंने कहा हौसला अफजाई के अंदाज़ में कहा कि डॉ. सिद्दीकी के भीतर तारीख का कीड़ा है और ये कीड़ा उनके नॉवेल को एक नए मुक़ाम पर पहुंचाता है। ऐसा बिल्कुल भी नहीं लगता कि वे नई लिखने वाली हैं। उन्होंने क़िरदारों के बहाने नाविल के कई मंजर भी सामने रखे और इस लिहाज़ से लेखक की पैनी नज़र की तारीफ की। डा. आक़िल अहमद ने नॉवेल को कोविड पर एक माकूल दस्तावेज के रुप में देखने की बात कही। उन्होंने बताया की नावेल की ज़बान सधी हूई है और उर्दू-हिन्दी के बीच एक आसान हिन्दुस्तानी की तरफदारी करती हुई नज़र आती है। अपर्णा दीक्षित ने बताया की ज़िदाँ दुनिया भर में एक कोरोना पर लिखी हुई पहली उर्दू नॉवेल है। जो अपने आपमे इसे ख़ास बनाता है। दूसरी बात नॉवेल एक गैर उर्दू साहित्य की लेखिका ने लिखा जो उर्दू को लेकर उनकी मोहब्बत और हिन्दुस्तानी ज़बान की तरफदारी की उनकी राजनीती की भी हिमायत करता है। साथ ही उन्होंने बताया कि यह नॉवेल एक मुसलमान औरत के कोविड और उस दौर में बदल गई दुनिया के बारे में है। दूसरी महिलाओं की तरफ यह नॉवेल सिर्फ औरत के मसलों की बात नहीं करता बल्कि यहां एक औरत कोविड के बीच खड़ी कोविड और उससे जुड़ी तालाबंदी को देख रही है। वो अपनी नज़र से पढ़ने वाले को बदलते क़ायदे क़ानून दिखा रही है। यहां उस दौर में घटने वाली घटनाओं पर एक औरत की नज़र तारी है। उस लिहाज़ से भी यह एक फेमिनस्ट डाक्यूमेंट कहा जा सकता है। प्रोग्राम के आखिर में प्रो. फरहत नसरीन ने नॉवेल को एक ज़रुरी तारीख़ी दस्तावेज के तौर पर देखने बात कहीं। उन्होंने कहा कि ज़िदाँ आज से बहुत आगे की बात कहता है। ये ऑनलाइन शॉपिंग, कोविड के छोटे-छोटे क़ायदों की बात करता है। इस बहाने ये तमाम क़िरदारों की मदद से बहुत बारीक तौर पर कोविड के दौर में ठहर गई जिंदगी की का फलसफा है। जिसमें किस्से हैं। किस्सों के अंदर किस्से हैं। कहावतें हैं। कहानियां हैं। इस बीच डॉ. फिरदौस ने नॉवेल के कुछ हिस्से को पढ़ा। जिसके बाद लोगों का एक मत से सुझाव आया कि इतनी ज़रूरी नॉवेल का हिंदी और अंग्रेजी में तर्जुमा लाज़मी है। कार्यक्रम डॉ. तरन्नुम सिद्दीकी की शुक्रिया अदायगी से ख़त्म हुआ।

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