पिछले हफ्ते उमर खालिद का एक पत्र मैंने पढ़ा। जेल से यह पत्र लिखा है इस पूर्व छात्र नेता ने, जिसको पढ़ कर मुझे रोना आया उसके लिए और देश के लिए भी। कैसा देश है हमारा, जहां जेलों में नब्बे फीसद से ज्यादा लोग ऐसे हैं, जिनके आरोप किसी अदालत में साबित नहीं हुए हैं?
कैसा देश है हमारा कि सर्वोच्च न्यायालय के स्पष्ट आदेश के बावजूद लोगों को सालों तक जमानत नहीं मिलती है? यानी दोष साबित होने से पहले ही उनको दंडित किया जाता है। उमर खालिद दो साल से जेल में हैं, लेकिन अभी तक उन पर जो आरोप लगाए हैं दिल्ली पुलिस ने, किसी अदालत में मुकदमा चला कर साबित करने की कोशिश तक नहीं हुई है।
अपने दोस्त रोहित को इस पत्र में उमर खालिद कहते हैं कि हर शाम जब घोषणा होती है कि ‘नाम नोट करें, इन बंदी भाइयों की रिहाई है’ तो वे उम्मीद करते हैं कि अबकी बार उनका नाम आएगा इस सूची में, लेकिन दो लंबे सालों के बाद मायूस होते जा रहे हैं। मायूस इसलिए भी हो गए हैं, क्योंकि हर दूसरे दिन नए, झूठे आरोप उन पर लगाए जाते हैं मीडिया में, सो मीडिया की अदालत में वे दोषी पाए जाएंगे, जबकि सलाखों के पीछे बंद हैं।
खालिद को गिरफ्तार किया गया था यूएपीए यानी गैरकानूनी गतिविधियां रोकथाम कानून के तहत, जो बना था कांग्रेस के दौर में आतंकवादियों के लिए। जब 2019 में मोदी दोबारा प्रधानमंत्री बने तो इस कानून में संशोधन लाया गया और अब आम नागरिक भी गिरफ्तार हो सकते हैं इस कानून के तहत।
दिल्ली पुलिस के मुताबिक उमर खालिद को गिरफ्तार किया गया था, क्योंकि उन पर आरोप था दिल्ली में सांप्रदायिक दंगे करवाने की साजिश रचने का। सबूत के तौर पर खालिद के कुछ भाषण पेश किए गए हैं, जिनमें उन्होंने सीएए यानी नागरिकता कानून के संशोधन का विरोध किया था, बिल्कुल वैसे ही, जैसे लाखों मुसलमानों और अन्य लोगों ने भी किया था 2019 के आखिरी दिनों में।
इस डर से कि पहली बार भारतीय संसद में ऐसा कानून पारित किया गया था, जिसमें स्पष्ट तौर पर मुसलमानों के साथ भेदभाव किया गया था। कहने को तो सिर्फ शरणार्थियों के लिए था यह कानून, लेकिन याद कीजिए कि ये वे दिन थे जब देश के गृहमंत्री ने स्पष्ट शब्दों में कहा था कि इसके बाद राष्ट्रीय जनसंख्या रजिस्टर बनेगा, जिसमें भारत के हर नागरिक को अपनी नागरिकता साबित करनी होगी।
कई गरीब मुसलिम नागरिक हैं देश में जिनकी झुग्गियों और टूटे-फूटे मकानों में जगह ही नहीं है इस तरह के दस्तावेज रखने के लिए, सो भय का माहौल बन गया था देश भर में। उमर खालिद जैसे पढ़े-लिखे मुसलिम युवकों ने सीएए का विरोध किया था, लेकिन इससे साबित नहीं होता है कि एक-दो भाषणों के कारण दंगे हुए थे।
उमर खालिद अकेले नहीं, जिन्हें इस तरह दंडित किया गया है बिना कोई दोष साबित हुए। पत्रकार सिद्दीक कप्पन को पिछले हफ्ते जमानत मिली है सर्वोच्च न्यायालय के हस्तक्षेप के बाद। उन्हें भी दो साल जेल में रखा गया सिर्फ इसलिए कि हाथरस जा रहे थे उस दलित बच्ची के बलात्कार और हत्या की घटना पर रिपोर्टिंग करने।
आरोप लगाया यूएपीए के तहत उन पर कि उनके साथ थे पीएफआइ नाम की जिहादी संस्था के कुछ व्यक्ति, तो उनका इरादा था हाथरस में दंगे करवाना। जमानत मिलने के बाद भी वे रिहा नहीं हुए हैं, क्योंकि अब उन पर एक दूसरा आरोप लगाया गया है ईडी यानी प्रवर्तन निदेशालय द्वारा।
क्या संयोग ही है कि इस कानून को हथियार बनाया जाता है सिर्फ मुसलमानों के खिलाफ? याद कीजिए कि कोविड जब शुरू हुआ था तो कई विदेशी मौलवियों को जेल में बंद कर दिया गया था कोविड फैलाने का आरोप लगा कर। जिस सम्मेलन में वे भाग लेने आए थे दिल्ली, उसे गृह मंत्रालय ने इजाजत दी थी, लेकिन गृह मंत्रालय ने ही निजामुद्दीन थाने को इनके नाम दिए बाद में कोविड फैलाने की आरोप में फंसाने के लिए।
सबको रिहा किया गया, जब अदालतों तक पहुंचे ये लोग और सुना है कि भारत सरकार को कई इस्लामी देशों से माफी भी मांगनी पड़ी है इस मामले को लेकर। इनके अलावा यूएपीए के तहत पकड़े गए हैं हास्य अभिनेता, जिनको कई महीने रखा गया जेल में। क्या संयोग है कि अक्सर जो पकड़े गए हैं ऐसे लोग मुसलिम होते हैं? जब किसी लोकतांत्रिक देश में कानून-व्यवस्था पर लोगों का विश्वास समाप्त होने लगता है तो सबसे बड़ा नुकसान होता है उस देश के लोकतांत्रिक ढांचे को।
अफसोस कि ऐसा होने लगा है भारत में। उमर खालिद अपने पत्र में इस बात को लिखते हैं कि उनको डर है कि जो उनके साथ हुआ है इस तरह का अन्याय हो रहा है पूरे मुसलिम समाज के साथ। लोकतंत्र को कायम रखते हैं चार खंभे, जिनमें सबसे जरूरी खंभा होता है न्याय व्यवस्था का। इसलिए कि जब जन प्रतिनिधि, सरकारी संस्थाएं या मीडिया किसी नागरिक के साथ अन्याय करती है तो उसके पास सर्वोच्च न्यायालय जाकर न्याय मांगने का संवैधानिक अधिकार है।
एक पूरी कौम को अगर लगने लगे कि न्यायालयों से न्याय मिलने की कोई उम्मीद नहीं है तो फैलने लगती है अराजकता इस पैमाने पर कि उसको काबू में लाना असंभव हो जाता है। मेरे जितने भी मुसलिम दोस्त हैं उनमें इस तरह की मायूसी दिखने लगी है और वे भी ऐसे समय जब हमारे पड़ोसी देशों में जिहादी संस्थाएं ऐसी हैं जो भारत को इस्लाम का दुश्मन मानती हैं।
प्रधानमंत्री को बुरा लगता है जब अंतरराष्ट्रीय स्तर पर कहा जाता है कि भारत में लोकतंत्र खतरे में है। शायद उनको न्यायालयों पर टूटते विश्वास पर ध्यान देना चाहिए।
आभार: जन सत्ता